​आर्सेनिक डॉक्यूमेंट्री: बंगाल के विधवा गांव और मानवाधिकार का सवाल

कोलकाता से कोई 70 किलोमीटर दूर बशीरहाट ब्लॉक के पश्चिम पाड़ा गांव में 65 साल की सोइबा बाला बार-बार आर्सेनिक पर अपनी व्यथा बयां कर थक चुकी हैं. करीब 15 साल पहले उनके पति निरंजन बाला की मौत आर्सेनिकोसिस से हो गई. वह बांग्ला में अपने परिवार की आपबीती हमें सुनाती हैं. हताशा और बेबसी से कहती हैं कि 15 सालों में आर्सेनिक समस्या पर बात करने के लिए डॉक्टरों, रिसर्चरों, स्वयंसेवी संगठनों और पत्रकारों की सैकड़ों टीमों को अपने गांव में आते देखा लेकिन हालात नहीं बदले.

“जब आप जैसे लोग आते हैं तो मेरा मन उनसे बात करने को नहीं होता,” सोइबा कहती हैं. उनका दर्द अपने और पूरे गांव के हालात को लेकर है.

“आप जानते हो मेरे घर के पांच लोग (आर्सेनिक से) मरे हैं. यहां (पड़ोस में) एक पूरा परिवार खत्म हो गया है. इधर आप जो भी घर देख रहे हैं सब जगह कैंसर (के बीमार) हैं. यहां बहुत सी कम उम्र की विधवाएं हैं. उन सबके पति मर गए. हम बड़े कष्ट में हैं. बहुत लोग आए. एक बार नहीं कई बार और सालों साल यहां (मेडिकल) कैंप लगे हैं. कभी यहां, कभी वहां. जहां भी खाली जगह दिखी या फिर स्कूल में भी कैंप लगे,” वो बताती हैं.

सोइबा बाला के पति समेत परिवार के पांच लोगों की मौत आर्सेनिकोसिस के कारण हुई.

बशीरहाट पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले में है. 1980 के दशक में पहली बार इस जिले के कुछ ब्लॉक्स के ग्राउंड वाटर में आर्सेनिक का पता चला. जाधवपुर यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ एन्वायरमेंटल स्टडीज की रिपोर्ट के मुताबिक आज राज्य के 14 जिलों के 148 ब्लॉक्स में आर्सेनिक की समस्या है.

पिछले 40 सालों में सोइबा बाला जैसी सैकड़ों महिलाओं के पति आर्सेनिकोसिस से मर चुके हैं.

बशीरहाट के ही 38 साल के सुजीत मंडल के पिता भी आर्सेनिकोसिस का शिकार हुए. वह कहते हैं, “मेरे चाचा, चाची और दादा समेत परिवार के चार लोग आर्सेनिक से मरे. मेरे पिता के बारे में लोग कहते हैं कि वो कैंसर से मरे लेकिन उनकी उम्र मरने की नहीं थी. असल में वह पानी में आर्सेनिक होने की वजह से मरे. डॉक्टर ने भी हमसे ये कहा कि तुम्हारा पानी बहुत खराब है फिर भी आज तक हम इसका इस्तेमाल करने को मजबूर हैं.”

55 साल की तन्द्रा सरकार भी उत्तर 24 परगना की उन महिलाओं में हैं जिनके पति और परिवार के अन्य सदस्य आर्सेनिक का शिकार हुए.

वह कहती हैं, “मेरे पति और परिवार के चार लोग मरे और उसका एकमात्र कारण यहां का पानी है. उन्होंने पानी नहीं जहर पिया. हम क्यों विधवा हुए? इसके लिए ये जल जिम्मेदार है. यहां के लोगों ने मां के पेट से जन्म लेने के बाद यही पानी पिया है. हम लोग अपने मायके से अच्छा पानी पीकर आए हैं. इन लोगों ने तो कभी साफ पानी नहीं पिया इसलिए ये नहीं बच पाए. यहां का कोई भी घर देख लीजिए. हर जगह विधवा हैं. कोई सुहागन नहीं है.”

बड़े ऐलान पर राहत का इंतजार

आर्सेनिक ने पश्चिम बंगाल के कई गांवों को विधवापाड़ा में बदल दिया है फिर भी बहुत सारी जगहों पर लोगों को पीने का साफ पानी नहीं है. हालांकि पश्चिम बंगाल सरकार ने साल 2022 तक सभी आर्सेनिक प्रभावित गांवों में सुरक्षित जल की “वैकल्पिक व्यवस्था” का ऐलान 2 साल पहले विधानसभा में किया था लेकिन पश्चिम पाड़ा जैसे बहुत से गांवों को इस राहत का इंतजार है.

सुजीत कहते हैं, “हमने ये सुना है कि यहां जल्दी ही साफ पानी पहुंचाया जाएगा. लेकिन अभी तक इस गांव में साफ पानी नहीं आया है.”

हालांकि ममता बनर्जी सरकार अपने पिछले कार्यकाल में साफ पानी की सप्लाई के लिए विजन 2020 डॉक्यूमेंट बनाया था जिसमें गांवों में हर व्यक्ति को 70 लीटर पेय जल प्रतिदिन उपलब्ध कराने का लक्ष्य था. पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग मंत्री ने फरवरी 2020 में विधानसभा में यह भी कहा कि साल 2024 तक बंगाल के सभी गांवों में आर्सेनिक मुक्त पानी नल द्वारा पहुंचा दिया जाएगा.

आर्सेनिक प्रभावित इलाकों के स्कूलों और आंगनवाड़ियों में बच्चे नल जल या साफ किए गए पानी के अभाव में हैंडपम्पों का पानी ही पी रहे हैं.

आर्सेनिक से बचने के लिए जो रास्ते सुझाए जाते हैं उनमें गहरी बोरिंग (करीब 250 मीटर या उससे अधिक), शोधन विधि द्वारा आर्सेनिक को हटाकर पानी की सप्लाई या सर्फेस वॉटर (नदी और तालाबों का पानी) को साफ कर उसकी सप्लाई शामिल है. इसके अलावा परम्परागत खुले कुंओं की सफाई कर उनके पानी का इस्तेमाल किया जा सकता है.

आर्सेनिक समस्या पर कई साल काम कर चुके और ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हाइजीन एंड पब्लिक हेल्थ के पूर्व निदेशक अरुणभ मजुमदार कहते हैं, “आर्सेनिक समस्या से निपटने के लिए हमने कई तकनीकों पर काम किया और बहुत कम कीमत के घरेलू फिल्टर भी विकसित किए. लेकिन जब आप बड़ी संख्या में लोगों को साफ पानी देने की कोशिश करते हैं तो कम्युनिटी (आर्सेनिक) रिमूवल प्लांट लगाना सबसे अच्छा रास्ता है.”

इन दावों के बावजूद बंगाल के बहुत सारे गांवों की सच्चाई ये है कि कई जगह न तो साफ पानी पहुंचा है न ही पानी को साफ करने के लिए लगाए गए सामुदायिक फिल्टर प्लांट ठीक से काम कर रहे हैं.

दावे बड़े पर हकीकत से दूर

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त, 2019 को लालकिले से जल जीवन मिशन योजना का ऐलान किया. केंद्र सरकार ने इसके लिए अगले 3.6 लाख करोड़ रुपए की घोषणा की. बजट दस्तावेज बताते हैं कि पिछले 2 साल में केंद्र सरकार ने इसके तहत 61,000 करोड़ रुपए दिए भी हैं.

जमीनी हालात का पता लगाने के लिए हमने यूपी, बिहार और बंगाल के एक दर्जन से अधिक जिलों का दौरा किया. भोजपुर के चकानी गांव में अभिमन्यु सिंह की मां कुछ साल पहले आर्सेनिकोसिस का शिकार हुईं. वह कहते हैं कि सरकार की नल जल योजना से कुछ गांवों में साफ पानी जरूर आया है लेकिन उसका आंशिक असर ही हुआ है.

सिंह के मुताबिक, “नल जल योजना असर केवल 20% है. जितनी बड़ी समस्या है उसके अनुरूप अगर देखा जाए तो समाधान बहुत छोटा है. इस बात की जांच होनी चाहिए कि जो पानी सप्लाई हो रहा है वो क्या साफ पानी के मानकों को पूरा भी करता है या नहीं.”

नल जल योजना के तहत यूपी और बिहार के इलाकों में कई जगह खानापूरी के लिए पाइप डाल दिए गए हैं. देश के सबसे अधिक आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों में से एक पटना के मानेर ब्लॉक में कई जगह बुरा हाल है. यहां रतनटोला गांव में जल सप्लाई का पाइप तो पहुंचा लेकिन पानी नहीं आया. सभी लोग आर्सेनिक युक्त पानी पीने को मजबूर हैं.

नल जल योजना के तहत जगह जगह नाली में फेंके गए या पेड़ से लटके पाइप देखे जा सकते हैं. यह फोटो बख्तियारपुर ब्लॉक के एक गांव की है.

एनजीओ इनर वॉइस फाउंडेशन के सौरभ सिंह कहते हैं, “इन गांवों में नल जल योजना को नाली योजना कहा जाता है क्योंकि जल सप्लाई के पाइप नालियों में डाल दिए गए हैं. इसी तरह बिहार में इसे पहुंना योजना कहा जाता है क्योंकि इनके ठेके वहां बेटी, दामाद और रिश्तेदारों को दिए गए हैं.”

हालांकि बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में वाटर सप्लाई के लिए जिम्मेदार पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग विभाग के चीफ इंजीनियर दयाशंकर मिश्र कहते हैं कि अधिकांश ग्रामीण इलाकों में पानी की सप्लाई दुरस्त है.

मिश्र के मुताबिक, “योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए भी थर्ड पार्टी क्वॉलिटी मॉनिटरिंग सिस्टम रखा गया है जिसमें स्वतंत्र इंजीनियर जो सरकारी इंजीनियर विभाग के नहीं होते हैं (जांच करते हैं) और वो सारी योजनाओं की एक स्वतंत्र रिपोर्ट देते हैं. जहां हमें इस तरह की कमियां मिल रही हैं या मिली हैं उसमें हमने सुधार करवाया है और जहां भी इस तरह की शिकायतें यदा कदा आती हैं, हालांकि हमारे संज्ञान में हैं नहीं, क्योंकि पता चलते ही उसका करेक्टिव मेजर (सुधारात्मक कदम) करते हैं.”

फिल्टर यूनिटों का हाल और मानवाधिकार

आर्सेनिक प्रभावित इलाकों में प्रदूषित जल को साफ कर लोगों के घरों तक पहुंचाना मिटिगेशन रणनीति में प्रमुख है. लेकिन कई जगह या तो आर्सेनिक रिमूवल प्लांट लगे ही नहीं या काम नहीं कर रहे हैं.

बलिया के सोनबरसा प्राइमरी स्कूल में हमें एक आर्सेनिक रिमूवल प्लांट लगा दिखा लेकिन पूछने पर पता चला कि वह खराब है और बच्चे हैंडपंप का ही पानी पी रहे हैं.

जगह जगह लगाए गए आर्सेनिक रिमूवल प्लांट खराब पड़े हैं. इनकी अनुपयोगिता के कारण लोग इन्हें सफेद हाथी कहते हैं.

स्कूल के हेडमास्टर तरुण कुमार दुबे कहते हैं, “यहां पर प्राइमरी स्कूल के अलावा आंगनवाड़ी और एक जूनियर हाईस्कूल है. जांच में पता चला है कि यहां हर जगह सुरक्षित सीमा से 50 गुना अधिक आर्सेनिक है लेकिन यहां आर्सेनिक रिमूवल प्लांट लगने के महीने भर के भीतर ही यह खराब हो गया और अब बच्चे न केवल प्रदूषित पानी को पी रहे हैं बल्कि उनका भोजन भी इसी से बनता है.”

कुछ साल पहले मानवाधिकार आयोग ने संज्ञान लिया जिसके बाद यूपी के चीफ सेक्रेटरी जुलाई 2015 में सभी जिलाधिकारियों को पत्र लिखकर कहा कि आर्सेनिक युक्त पानी पीने से किसी व्यक्ति की मृत्यु होने का केस संज्ञान में आता है तो कृपया ऐसे मामले की मजिस्ट्रेट जांच कराई जाए. चिट्ठी में मृतक व्यक्ति के परिवार को मुआवजा उपलब्ध कराने की बात भी कही गई.

उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव द्वारा 2015 में राज्य के सभी ज़िलाधिकारियों को दिया आदेश

सौरभ सिंह कहते हैं, “आदेश के छह साल बाद भी किसी व्यक्ति को मुआवजा नहीं मिला जबकि हम लगातार शासन को चिट्ठियां लिखते रहे”

हमने इस बारे में बलिया और गाजीपुर के जिलाधिकारियों को सवाल भेजे और पूछा कि अब तक आर्सेनिक से मौत के कितने मामलों की जांच हुई और कितने लोगों को मुआवजा मिला. हमें अभी तक इसका कोई जवाब नहीं मिला.

आर्सेनिक के कारण इन इलाकों में एक पूरी पीढ़ी का भविष्य बर्बाद हो रहा है. मानेर के देशराज कुमार कहते हैं कि उन्होंने छह बार से अधिक फौज में भर्ती के लिए आवेदन किया लेकिन त्वचा की बीमारी के कारण हर बार अनफिट घोषित कर दिए गए. उनके मुताबिक यह कहानी गांव के सैकड़ों युवाओं की है.

उम्मीद की धुंधली किरण

इस क्षेत्र में काम कर रहे विशेषज्ञ कहते हैं कि कई जगह उम्मीद जगाने वाले बदलाव भी दिख रहे हैं. महावीर कैंसर के अरुण कुमार बताते हैं कि कैसे सारन जिले के सबलपुर गांव में लगाया गया आर्सेनिक फिल्टर प्लांट 200 घरों में साफ पानी पहुंचा रहा है.

करीब दो दशकों से आर्सेनिक पर रिसर्च कर रही प्रो नुपूर बोस कहती हैं कि पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक का पता काफी पहले चला इसलिए वह मिटिगेशन के काम में बिहार और यूपी से काफी आगे है लेकिन यहां भी राज्य सरकार ने साफ जल मुहैया कराने के लिए कुछ अच्छी पहल की हैं. विशेष रूप से जल प्रबन्धन को लेकर जो कदम उठाए गए हैं अगर उनका 100 प्रतिशत क्रियान्वयन हो तो काफी बदलाव आ सकता है.

प्रदूषित पानी के इस्तेमाल से बचने के लिए हैंडपम्पों की रेड मार्किंग एक तरीका है.

बंगाल में सरकार ने कुछ जगह आर्सेनिक प्रभाव वाले हैंडपम्पों की रेड मार्किंग की है ताकि लोगों को पता चल सके कि उनका पानी पीने योग्य नहीं है.

बंगाल सरकार के साथ काम कर रही यूनेस्को की विजी जॉन कहती हैं, “रेड मार्किंग का मकसद जनता को यह बताना है कि वह इन हैंडपम्पों के पानी का इस्तेमाल कपड़े धोने और नहाने जैसे कामों में कर सकते हैं लेकिन पी नहीं सकते.”

आंकड़ों का मिसमैच

आर्सेनिक पर एक स्पष्ट और सटीक डाटा बेस की कमी है और सरकार अपने ही आंकड़ों में उलझी दिखती है.

मिसाल के तौर पर बिहार को ही लें तो लोकसभा में सरकार कहती है कि 2015 में वहां कुल 66 हैबिटेशन या बसावटें आर्सेनिक प्रभावित थीं

राज्यसभा में दिए जवाब में अगले साल 2016 में आर्सेनिक प्रभावित बसावटों की संख्या बढ़कर 1077 हो जाती है लेकिन इसी साल (यानी 2016 में) जलशक्ति मंत्रालय के आंकड़े इनकी संख्या 102 बताते हैं.

हालांकि जलशक्ति मंत्रालय ने ये आंकड़े पानी में आर्सेनिक की मात्रा 50 पीपीबी प्रति लीटर के हिसाब से दिए हैं.

यूपी असम और पश्चिम बंगाल को लेकर भी आंकड़ों का यही मिसमैच है. वैसे 2017 के बजट भाषण में तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि 4 सालों में 28,000 आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित बसावटों में राष्ट्रीय ग्रामीण पेय जल कार्यक्रम के तहत साफ पानी पहुंचाया जाएगा. लोकसभा में इससे जुड़े सवाल के जवाब में 18 मार्च 2021 को सरकार ने कहा कि 1,386 बसावटों को छोड़कर बाकी जगह पीने योग्य पानी पहुंचा दिया गया है.

कैप्शन 18 मार्च 2021 को लोकसभा में सरकार का जवाब

बोतलबंद पानी का बढ़ता बाजार

आर्सेनिक की मार और साफ पानी न मिलने के कारण आज बोतलबंद पानी का बहुत बड़ा बाजार इन गांवों और कस्बों में फैल गया है. सरकारी निकम्मेपन और भ्रष्टाचार के कारण यह समस्या बढ़ी है.

पश्चिम पाड़ा की तन्द्रा सरकार कहती हैं कि हर महीने 600-700 रुपए पीने के बोतलबंद पानी पर खर्च होते हैं और यह खर्च उन्हें बहुत अखरता है.

अपनी मजबूरी बताते हुए वह कहती हैं, “अगर कोई मेहमान घर पर आ जाता है तो मन नहीं करता उसे पानी पिलाने का. यहां पैसे से अधिक मूल्यवान साफ पानी है.”

इसी गांव के सुजीत मंडल कहते हैं कि पीने का पानी खरीदने के बाद खाना बनाने के इसी उन्हें आर्सेनिक प्रदूषण वाला पानी ही इस्तेमाल करना पड़ता है. वह कहते हैं, “अगर हर काम के लिए पानी बाहर से खरीदें तो महीने का खर्च 2000 रुपए से अधिक हो जाएगा. वह हमारी हैसियत से बाहर है.”

मानेर के रतनटोला में किसान परिवार पीने का पानी भी नहीं खरीद सकते. वह खतरे को जानते हुए भी प्रदूषित पानी पीने को मजबूर हैं.

जाधवपुर विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे और आर्सेनिक पर कई सालों से रिसर्च कर रहे प्रो तड़ित रॉयचौधरी बोतलबंद पानी के फैसले बाजार को एक धोखा बताते हैं. उनके मुताबिक 40 साल पहले (डायरिया जैसी बीमारी से बचने के लिए) ग्राउंड वाटर के अंधाधुंध दोहन की जो गलती की वही गलती बोतलबंद पानी के अतिप्रचार के रूप में दोहराई जा रही है.

रायचौधरी जो चेतावनी दे रहे हैं वह बात खुद संसद की स्टैंडिंग कमेटी कह चुकी है. 2018 में उद्योगों द्वारा भूजल के व्यवसायिक दोहन के सामाजिक आर्थिक प्रभाव नाम से एक संसदीय कमेटी ने कहा कि राज्यों ने बड़ी संख्या में जमीन से पानी निकालने के लिए कंपनियों को लाइसेंस दिए हैं और भूजल की किल्लत वाली जगहों में भी अनुमति दी गई हैं. उन जगहों में पानी के दोहन के लिए यूनिट्स खड़ी की जा रही हैं जहां जमीन से पानी निकालने पर पाबंदी है.

कमेटी ने कहा कि बोतलबंद पानी बेच रही कंपनियों के कारोबार और मुनाफे का कोई पारदर्शी हिसाब किताब नहीं पता है इसलिए जहां किसानों को भूजल मुफ्त में निकालने की आजादी है वहीं इन कंपनियों के लिए नियम और रेगुलेशन होने चाहिए.

प्रभावित इलाकों में साफ पानी के अभाव में बोतलबंद पानी का बाजार तेजी से बढ़ा है.

रॉय चौधरी के मुताबिक, “हम फ्लोराइड, आर्सेनिक और नाइट्रेट से सुरक्षित जल संसाधनों के लिए प्रयास करने के बजाय वही गलती कर रहे हैं जो हमने 30 साल पहले की थी. हम बिना किसी नियंत्रण के लगातार अंधाधुंध पानी जमीन से निकाल रहे हैं. इन दिनों समस्या बड़ी इसलिए भी हो गई है कि कुछ लोग बिना किसी गुणवत्ता का ध्यान रखे व्यापार के लिए बहुत पानी निकाल रहे हैं. वो पानी की क्वॉलिटी की जांच नहीं कर रहे बस पानी निकाल रहे हैं और 20 लीटर की बोतल में भर कर गांवों में लोगों को सप्लाई कर रहे हैं.”

***

(आर्सेनिक पर ग्राउंड रिपोर्ट्स की यह सीरीज ठाकुर फैमिली फाउंडेशन के सहयोग से की गई है. ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने इस रिपोर्ट/ सीरीज में किसी तरह का संपादकीय दखल नहीं किया है)

सीरीज का पहला और दूसरा पार्ट यहां पढ़ें-

Also Read: डॉक्यूमेंट्री: फूड चेन में आर्सेनिक और बिगड़ता सामाजिक तानाबाना

Also Read: डॉक्यूमेंट्री: जमीन से निकलती मौत, पानी में आर्सेनिक बन रहा यूपी-बिहार के हजारों गांवों में काल



source https://hindi.newslaundry.com/2022/01/31/arsenic-the-widow-village-of-bengal-and-the-question-of-human-rights

Comments

Popular posts from this blog

Sushant Rajput case to Zubair arrest: The rise and rise of cop KPS Malhotra

Delhi University polls: Decoding first-time voters’ decisions

Hafta letters: Caste census, Israel-Palestine conflict, Bajrang Dal