दिल्ली दंगा: न पुलिस डायरी में एंट्री, न चश्मदीद गवाह; कई आरोपी हुए बरी

साल 2020 में दिल्ली में हुई हिंसा के अनेकों पीड़ित जान बचाकर भाग गए, जिस वजह से गिने-चुने चश्मदीद गवाह बचे जो आरोपियों की पहचान नहीं कर सके. परिणामस्वरूप पुलिस की जांच कमज़ोर रही क्योंकि कथित रूप से भीड़ को नियंत्रित करने की कोशिश में पुलिस वाले इतने व्यस्त रहे कि वह डायरी में महत्वपूर्ण प्रविष्टियां नहीं कर सके, फलस्वरूप अदालत में आरोपियों का दोष सिद्ध नहीं हो सका. ऐसा कई मामलों में हुआ जिनमें कई आरोपी बरी हो चुके हैं.

हिंसा से जुड़े कुल 757 मामलों में से 28 में अब तक आरोपी बरी हो चुके हैं. न्यूज़लॉन्ड्री ने इनमें से 14 का विश्लेषण किया जिनमें 11 लोग बरी हुए थे.

नियमों के विरुद्ध इकठ्ठा होने, दंगा, तोड़फोड़ और संपत्ति व वाहनों को आग लगाने से संबंधित यह मामले, 24 से 26 फरवरी, 2020 के बीच गोकलपुरी, ज्योति नगर, वेलकम, भजनपुरा और खजूरी खास पुलिस थानों में थे. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीशों पुलस्त्य प्रमाचला, वीरेंद्र भट और अमिताभ रावत की अदालतों में कुल 119 गवाहों से पूछताछ की गई जिनमें से ज्यादातर पुलिस अधिकारी थे.

इनमें से कई मामलों में अभियुक्तों की पहचान अचानक की गई, जिससे उन्हें दोषी ठहरा सकने की संभावना कम हो गई. 14 मामलों में से कम से कम सात मामलों में अदालतों ने पुलिस अधिकारियों द्वारा थाने में प्रवेश और निकास के दौरान, तथा कानून-व्यवस्था की स्थिति को लेकर डायरी प्रविष्टियां करने में विफलता पर आपत्ति जताई. साथ ही कम से कम दो अन्य मामलों में अभियोजन पक्ष महत्वपूर्ण गवाहों से पूछताछ करने में विफल रहा.

दंगों के कई मामलों में दिल्ली पुलिस की ओर से पेश हो रहे एक विशेष सरकारी वकील ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उस समय काम के बोझ और व्यापक अराजकता के कारण बीट अधिकारियों से (डायरी प्रविष्टियां करने में) देरी हुई.

दिल्ली के पूर्व पुलिस आयुक्त एसएन श्रीवास्तव ने कहा, “वह चुनौतीपूर्ण समय था जिसमें आधिकारिक तौर-तरीकों का पालन करना मुश्किल होता है. एक पुलिस कर्मी पर कई सारे कामों का बहुत ज़्यादा बोझ होता है. हो सकता है, ऐसी परिस्थितियों में कुछ डायरी प्रविष्टियां नहीं की गई हों. कानून-व्यवस्था स्थापित करने वाली सभी संस्थाओं को इन परिस्थितियों को समझना चाहिए."

हालांकि दिल्ली पुलिस के साथ काम करने वाले एक वरिष्ठ वकील ने कहा कि जिन अधिकारियों ने हिंसा देखी या अभियुक्तों को पहचाना है, उनका कर्तव्य है कि वह ऐसी जानकारी मौखिक या लिखित रूप से पुलिस स्टेशन या एसएचओ को दें. उन्होंने कहा, "इसके बाद, ड्यूटी अधिकारी (जो पुलिस लॉग रखता है) प्राप्त सूचना के बारे में एक प्रविष्टि करता है. आरोपियों का स्केच तैयार किया जाता है, फिर शिनाख्त परेड होती है. लेकिन इस प्रक्रिया का पालन शायद ही कभी होता है.”

इस सबके बीच, अभियोजन पक्ष डायरी प्रविष्टियों में देरी और अभियुक्तों की "तात्कालिक" पहचान किए जाने के कारण बताने में विफल रहा, जबकि बीट अधिकारियों ने उन्हें दंगा प्रभावित क्षेत्रों में देखा था.

वकील महमूद प्राचा ने डायरी एंट्री को 'सत्य का रिकॉर्ड' बताते हुए कहा कि यह सभी अधिकारियों के लिए अनिवार्य है. उन्होंने कहा, “अगर डीडी (डेली डायरी) एंट्री नहीं होती है, तो बाद में कोई भी कहानी बनाई जा सकती है. पंजाब पुलिस के नियमों के अनुसार, सभी पुलिस अधिकारियों को अपने थाने लौटने पर डीडी प्रविष्टियां करनी होती हैं."

एक वकील ने कहा कि दिल्ली पुलिस के नियमों में जो आचरण शामिल नहीं हैं वह अभी भी पंजाब पुलिस के नियमों द्वारा निर्देशित होते हैं, जिनमें पुलिस स्टेशन का कामकाज भी शामिल है.

पंजाब पुलिस नियमों की धारा 22.49 (डी) के अनुसार: "हेड कांस्टेबल रैंक या उससे ऊपर के हर पुलिस अधिकारी को, उन मामलों के अलावा जिनकी छानबीन की केस डायरी प्रस्तुत की जाती है, ड्यूटी से लौटने पर स्टेशन क्लर्क या उसके सहायक से दैनिक डायरी में एक प्रविष्टि करवानी होगी, जिसमें उन्हें विवरण देना होगा कि पुलिस स्टेशन से अनुपस्थिति के दौरान वह किन जगहों पर गए और क्या-क्या किया."

लेकिन सीलमपुर में पूर्वोत्तर दिल्ली पुलिस मुख्यालय के एक अधिकारी ने (ऐसा नहीं किए जाने के लिए) परिस्थितियों को जिम्मेदार ठहराया. “हमारी पहली प्राथमिकता थी कि स्थिति को नियंत्रण में लाया जाए और लोगों को बचाया जाए. इसलिए हो सकता है, डीडी प्रविष्टियां छूट गई हों. दूसरा, दंगों के तुरंत बाद कोविड लॉकडाउन हो गया. कुछ गवाह अपने घरों को चले गए. इससे भी जांच प्रभावित हुई. जहां तक (आरोपियों की) तात्कालिक पहचान (करने का) का सवाल है, पुलिस के लिए किसी ऐसे आरोपी को गिरफ्तार करना कोई असामान्य बात नहीं है, जिसे किसी दूसरे मामले में पुलिस स्टेशन बुलाया गया हो. जब हम किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करते हैं, तो अन्य मामलों में उसके शामिल होने पर सवाल उठाना स्वाभाविक है. यदि वह अन्य मामलों में अपनी संलिप्तता का खुलासा करता है, तो बीट कांस्टेबलों और शिकायतकर्ताओं को पहचान के लिए बुलाया जाता है." 

आरोपियों को दोषी ठहराए जाने की दर के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि यह राष्ट्रीय औसत के अनुरूप है. "भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता. सीसीटीवी कैमरे, जिनसे महत्वपूर्ण सबूत मिल सकते थे उन्हें नष्ट कर दिया गया. इससे हमारे हाथ और कम सबूत लगे. लेकिन आरोपियों को सजा मिलने की दर राष्ट्रीय औसत के अनुरूप ही है."

हालांकि "तात्कालिक" पहचान और डायरी प्रविष्टियां ही आरोपियों के बरी होने का एकमात्र कारण नहीं थीं, लेकिन उपरोक्त अधिकारी के शब्दों में इसने "न्यायाधीशों के मन में संदेह के बीज अवश्य बोए."

पूर्व डीसीपी एलएन राव ने कहा, "संभव है कि डीडी प्रविष्टियां एकमात्र जरूरी सबूत न हों, लेकिन निश्चित रूप से वह बहुत महत्वपूर्ण हैं."

एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, पिछले साल भारत में अदालतों द्वारा निपटाए गए 13,534 दंगों के मामलों में से केवल 2,964 या 21.9 प्रतिशत मामलों में सजा हुई.

उत्तरपूर्वी दिल्ली के डीसीपी संजय कुमार सेन की टिप्पणी लेने की कोशिश की गई लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो सका. दिल्ली पुलिस आयुक्त संजय अरोड़ा को भेजे गए ईमेल का जवाब अब तक नहीं मिला है. यदि उनकी प्रतिक्रिया आती है तो यह रिपोर्ट संशोधित कर दी जाएगी.

आइए उन 14 मामलों में से कुछ को देखें जिनमें आरोपी बरी हुए.

फैसले की तारीख: 2 नवंबर, 2022

जज: अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश पुलस्त्य प्रमाचला

गवाह: 8

आरोपी: 1

तीन लोगों के एक परिवार ने शिकायत दर्ज कराई कि खजूरी खास में 25 फरवरी को 100-150 लोगों की भीड़ ने उनकी दुकान में तोड़फोड़ की और आग लगा दी.

मुक़दमे के दौरान तीन शिकायतकर्ताओं में से एक मुकर गया. अदालत ने पूछा कि बाकी दो शिकायतकर्ताओं और चश्मदीद गवाह बीट कांस्टेबल रोहताश ने आरोपी के रूप में नूर की पहचान तब कैसे की, जब उसे 2 अप्रैल को एक अन्य मामले में पुलिस स्टेशन लाया गया था? कोर्ट ने यह भी पूछा कि इस घटना को "औपचारिक रूप से कहीं भी दर्ज क्यों नहीं किया गया?"

जज ने कहा कि पुलिस स्टेशन में दो शिकायतकर्ताओं और पुलिस अधिकारी द्वारा "संयोगवश भेंट" में पहचान करना, जब नूर से एक अन्य मामले में पूछताछ की जा रही थी - "इतना विश्वास उत्पन्न नहीं करता कि उस पर भरोसा किया जाए."

1965 के सुप्रीम कोर्ट के एक मामले, मसलटी बनाम यूपी राज्य का हवाला देते हुए, जस्टिस प्रमाचला ने कहा कि भीड़ द्वारा हिंसा के मामलों में कम से कम चार गवाहों को अभियुक्त के खिलाफ सुसंगत गवाही देनी चाहिए.

फैसले की तारीख: 14 सितंबर, 2022

जज: एएसजे अमिताभ रावत

गवाह: 10

आरोपी: 2

यह मामला 25 फरवरी को अशोक नगर में भीड़ द्वारा एक घर में तोड़फोड़ और आग लगाने के बाद ज्योति नगर पुलिस स्टेशन में दर्ज किया गया था.

अभियोजन पक्ष के अनुसार, शिकायतकर्ता शमशाद ने आरोपी सूरज और जोगिंदर सिंह को भीड़ में पहचाना था लेकिन उसने अदालत में ऐसा नहीं किया. चश्मदीद गवाह कांस्टेबल प्रमोद ने न तो डायरी में एंट्री की और न ही अपने उच्च अधिकारियों को संदिग्धों के बारे में जानकारी दी.

आरोपियों पर पुलिस थाने में कई प्राथमिकियां दर्ज की थीं, और कांस्टेबल व शिकायतकर्ता द्वारा उनकी पहचान घटना के एक महीने बाद एक ही दिन की गई. अदालत ने कहा कि इस तरह अकस्मात पहचान किए जाने से "संदेह" उत्पन्न होता है, और आरोपियों को बरी कर दिया.

उन्हें इसी तरह के एक अन्य मामले में भी उन्हीं जज द्वारा 7 जून को बरी कर दिया गया था, क्योंकि एकमात्र चश्मदीद गवाह राजेश अदालत में पेश नहीं हुआ. राजेश ने भी उसी दिन पुलिस स्टेशन में उनकी पहचान की थी जिस दिन शमशाद ने की, और अन्य मामलों की तरह ही हेड कांस्टेबल रविंद्र ने पहले कोई रिकॉर्ड नहीं रखा था.

यानोब शेख उर्फ ​​गागू बनाम पश्चिम बंगाल राज्य का हवाला देते हुए, जज रावत ने कहा कि हर संदेह से परे किसी मामले को साबित करने के लिए, अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों को उनकी मात्रा नहीं बल्कि गुणवत्ता के आधार पर परखना चाहिए.

फैसले की तारीख: 31 मई, 2022

जज: एएसजे वीरेंद्र भट

गवाह: 11

आरोपी: 1

आस मोहम्मद ने शिकायत दर्ज कराई थी कि करावल नगर में 25 फरवरी को भीड़ ने उनके स्कूल और चार वाहनों में आग लगा दी थी. 

मामले का सबसे महत्वपूर्ण गवाह, आस का ड्राइवर कल्याण सिंह अदालत में आरोपी प्रवीण गिरी की पहचान नहीं कर सका. वहीं दो महत्वपूर्ण गवाहों, खबर देने वाले मुखबिर और सीसीटीवी फुटेज प्रदान करने वाले दुकान के मालिक, से अभियोजन पक्ष ने पूछताछ नहीं की. 

अदालत ने अपने आदेश में कहा, “इसलिए, अभियोजन पक्ष अभियुक्त के खिलाफ आरोपों को साबित करने में बुरी तरह विफल रहा है. कोई भी निर्णायक सबूत नहीं पेश किया गया है जिससे यह जानकारी मिल सके कि आरोपी 25.02.2020 को अवैध जमावड़े में शामिल था."

चार दुकानों और एक वाहन को नुकसान पहुंचाने और लूट के दो इसी तरह के मामलों में, अदालत ने गिरि को ऐसे ही आधारों पर सभी आरोपों से बरी कर दिया.

फैसले की तारीख: 4 अप्रैल, 2022

जज: एएसजे वीरेंद्र भट

गवाह: 7

आरोपी: 1

25 फरवरी, 2020 को खजूरी खास के चांद बाग पुलिया में ज्ञानेंद्र की बेकरी में तोड़फोड़ की गई और उसमें आग लगा दी गई.

मुकदमे के दौरान, वह अपने बयान से मुकर गया और आरोपी नूर मोहम्मद की पहचान नहीं की. अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है कि नूर को इस मामले में 21 मार्च को तब गिरफ्तार किया गया था जब उसने खुलासा किया कि वह एक अलग मामले में हिंसक भीड़ का हिस्सा था.

अदालत ने इस बात पर भी हैरानी जताई कि इलाके में तैनात एक बीट पुलिस अधिकारी ने नूर के अपराध में शामिल होने के बारे में 2 अप्रैल, 2020 तक वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित क्यों नहीं किया.

हालांकि पुलिस अधिकारी ने अदालत में दावा किया कि उन्होंने घटना के लगभग पांच दिन बाद जांच अधिकारी को बताया था कि वह नूर सहित चार या पांच दंगाइयों की पहचान कर सकते हैं. कोर्ट ने कहा कि यदि आईओ (जांच अधिकारी) को सूचित किया जाता, तो वह आरोपी की पहचान के लिए 31 मार्च तक इंतजार नहीं करते.

अदालत ने कहा कि खजूरी खास पुलिस स्टेशन में जिस तरह से नूर की पहचान की गई, वह "बिल्कुल संदिग्ध और अविश्वसनीय" प्रतीत होता है. बीट अधिकारी ने पुलिस स्टेशन में नूर की पहचान तब की, जब एक पुलिस अधिकारी 2 अप्रैल को एक अन्य मामले में उससे पूछताछ कर रहे थे. 

एक अन्य मामले में दर्जी की दुकान और कपड़ा कारखाने में हुई लूट और तोड़फोड़ में अभियोजन पक्ष नूर के खिलाफ आरोपों को साबित नहीं कर सका, और दुकान के मालिक मोहम्मद हनीफ और कारखाने के मालिक वसीम ने पुलिस को दिए बयान वापस ले लिए.

19 सितंबर, 2022 को अपने फैसले में एएसजे पुलस्त्य प्रमाचला ने कहा कि हनीफ और कांस्टेबल संग्राम द्वारा अभियुक्तों की तात्कालिक पहचान करना अस्वाभाविक प्रतीत होता है. उन्होंने संग्राम से पूछताछ करने में जांच अधिकारी की ओर से हुई देरी पर भी सवाल उठाया, जबकि वह जानते थे कि संग्राम संबंधित क्षेत्र में बीट कांस्टेबल थे.

फैसले की तारीख: 14 जनवरी, 2022

जज: एएसजे वीरेंद्र भट

गवाह: 18

आरोपी: 1

24 फरवरी, 2020 को तीन घरों में तोड़फोड़ और आगजनी की घटना को लेकर गोकलपुरी थाने में तीन शिकायतें दर्ज कराई गई थीं.

अभियोजन पक्ष के अनुसार, दोनों शिकायतकर्ता आरोपी रोहित की पहचान नहीं कर सके क्योंकि लगभग 500 लोगों की भीड़ को आता हुआ देख वो अपने घर से भाग गए थे. वहीं तीसरा शिकायतकर्ता अदालत में रोहित की पहचान करने में विफल रहा. एक अन्य गवाह, रोहित की आंटी, अपने बयान से मुकर गईं.

अदालत ने पाया कि किसी भी गवाह ने रोहित को अपराध करते नहीं देखा. जब दो हेड कांस्टेबलों ने कहा कि उन्होंने रोहित को आगजनी में लिप्त भीड़ से 10 मीटर दूर खड़ा देखा था, तो अदालत ने कहा कि उसकी उपस्थिति से "लगता है कि वह बस वहां खड़ा था."

गोकलपुरी में दो दुकानों और एक घर में तोड़फोड़ और आगजनी के एक अन्य मामले में भी रोहित को बरी कर दिया गया. एएसजे पुलस्त्य प्रमाचला ने 17 जुलाई को अपने फैसले में "लापरवाह" चार्जशीट दायर करने के लिए पुलिस की आलोचना की - घटनाएं 25 फरवरी को हुईं थीं, लेकिन पुलिस ने उससे पिछले दिन के सबूतों को आधार बनाया.

रोहित के वकील की दलील थी कि हेड कांस्टेबल जहांगीर खान ने इन घटनाओं या रोहित की पहचान के बारे में डायरी में कोई प्रविष्टि नहीं की. कोर्ट ने इस ओर ध्यान दिलाया कि घटना 25 फरवरी को हुई थी लेकिन पुलिस उससे एक दिन पहले के सबूतों को (जांच का) आधार बनाया.  

फैसले की तारीख: 7 जनवरी, 2022

जज: एएसजे वीरेंद्र भट

गवाह: 14

आरोपी: 4

अभियोजन पक्ष के अनुसार, 26 फरवरी, 2020 को गोकलपुरी में लगभग 250 लोगों की भीड़ ने मुसलमानों की संपत्तियों को निशाना बनाया, जिसमें एक घर व एक दुकान में तोड़फोड़ और आगजनी की गई.

दो पीड़ित आरोपियों की पहचान नहीं कर सके क्योंकि घटना के समय वे वहां से भाग गए थे. इलाके में तैनात एक हेड कांस्टेबल और एक कांस्टेबल ने 25 और 26 फरवरी को थाने में अपने आने या जाने के बारे में कोई डीडी एंट्री नहीं की.

अदालत ने उनकी "गंभीर चुप्पी" पर आपत्ति जताई और कहा कि उनमें से किसी ने भी "कोई ऐसा कारण नहीं बताया जिसने उन्हें 22 मार्च तक आईओ या किसी भी वरिष्ठ अधिकारी को अभियुक्तों का नाम बताने से रोक रखा था." अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है जैसे दोनों को 22 मार्च को "अचानक नाटकीय रूप से इस मामले में चश्मदीद गवाह बना दिया गया."

फैसले की तारीख: 20 जुलाई, 2021

जज: एएसजे अमिताभ रावत

गवाह: 7

आरोपी: 1

यह उन शुरुआती मामलों में से एक था जिसमें अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में विफल रहा. आसिफ ने शिकायत की थी कि मियां बाबरपुर रोड पर 25 फरवरी को भीड़ ने उनकी टीवी रिपेयर की दुकान में तोड़फोड़ और लूटपाट की.

हालांकि उनके मकान मालिक भगत सिंह अदालत में अपने बयान से मुकर गए, जिसमें उन्होंने सुरेश उर्फ ​​भटूरा की पहचान की थी. मामले को और ज्यादा कमज़ोर हेड कांस्टेबल सुनील की देरी ने बनाया, जिन्हें भगत सिंह ने मौके पर बुलाया था. उन्होंने वेलकम पुलिस स्टेशन में घटना की सूचना देने और डीडी एंट्री करने में जो देरी की, जिससे मामला और कमजोर हुआ.

अदालत ने कहा कि सुनील दंगे के दौरान सुरेश को पहचानने की बात तो कर रहे थे, लेकिन उन्होंने उस तारीख पर या 28 फरवरी को प्राथमिकी दर्ज होते समय कोई प्रविष्टि दर्ज नहीं की. उन्होंने 1 मार्च तक संबंधित पुलिस स्टेशन को "कभी भी लिखित रूप में कुछ भी नहीं दिया." जज ने इस मामले के होने पर भी हैरानी जताई, जबकि इलाके के अधिकांश पुलिस अधिकारी जानते हैं कि सुरेश "बुरे चरित्र" का व्यक्ति है, तब भी ऐसा क्यों हुआ.

यह एक विज्ञापन नहीं है. कोई विज्ञापन ऐसी रिपोर्ट को फंड नहीं कर सकता, लेकिन आप कर सकते हैं, क्या आप ऐसा करेंगे? विज्ञापनदाताओं के दबाव में न आने वाली आजाद व ठोस पत्रकारिता के लिए अपना योगदान दें. सब्सक्राइब करें.

source https://hindi.newslaundry.com/2022/11/24/delhi-riots-many-accused-acquitted

Comments

Popular posts from this blog

Sushant Rajput case to Zubair arrest: The rise and rise of cop KPS Malhotra

Delhi University polls: Decoding first-time voters’ decisions

Hafta letters: Caste census, Israel-Palestine conflict, Bajrang Dal